कविता संग्रह- मन पाखरू

पहिल्या नजरेतमुख्यपृष्ट पाहताअसे वाटते कि कवी विलास कदम हे इतर कविंप्रमाणे फक्त 'जे  देखे रविते देखे कवीया मुक्त रसिकतेच्या छंदात न्हालेल्या काव्यांचा वर्षाव करणार आहेतपण कवितांचे वाचन करताच ही धारणा मिटतेअसे दिसते कि कवी निसर्गमानवीय भावनाआक्रांत  आत्मिक निर्मलता यांची सांगड घालीत आपल्याला त्यांच्या भावविश्वातून सत्य आणि त्यात दडलेले सौंदर्यउत्कटता आणि जगण्याचा हव्यास याची जाणीव करून देतात

निसर्गाशी असलेले बालपणापासूनचे नाते आणि त्यात रमणारे मन 'मन पाखरूया 'शीर्षककवितेत दिसून येते
कधी उंच झुल्यावर,
मन अथांग सागर… 
असे भुइवर आता जाई गगनी सत्वर
उंडरते जेव्हा तेव्हा 
वार भरलेले वासरु
असेच 'जीवनसागर', 'पाणी', 'जगणे',  या कवितांतील जलफुलंवनराईप्राणीमात्र यांचा आपल्या भावनिक आणि भौतिक जीवनावर होणारा प्रभाव व्यक्त करतात

निसर्गाच्या रम्य वातावरणासोबत कवींना रोजच्या जगण्यासाठी केलेल्या मानवी संघर्षाचाही प्रत्यय आलेला आहेहा संघर्ष फक्त त्यांच्या निसर्गरम्य आबलोली गावापुरता मर्यादीत नसून शहरातही याचा अनुभव कवी विलास यांना आला आहेकारण ते समाज कार्यात सक्रीय आहेत आणि त्यांनी आपल्या बांधवांना गरिबीदारिद्र्य आणि दीन जीवनातून मुक्त करण्याचा ध्यास घेतला आहेत्यासाठी ते गोरगरीब समाजात वावरत असतातपण कवींना एक गोष्ट जाणविली आहे किजगण्यासाठी करीत असलेला संघर्षबिकट परीस्थितीबेआसरा असलेल्या आशाया सर्वांवर मात करता येतेआणि ती मात त्यांनी कवितांतून स्पष्ट केली आहेही मात करताना आशेचा सूर्य मनात तळपत राह्तो. 'आशावादसर्व दुखी आणि निराश भावना आणि विचारांना घालविण्याचा जालीम उपाय म्हणून कवितांमधून प्रकट होतो. 'नवरीया कवितेतील निरागस मुलीचा आपल्या गरीब आईला केलेला प्रश्न 'माय कधी  आपण… चांगल्या घरात जाणार?' तिच्यासाठी तिच्या मातेची आशा कि तिच्या मुलीला हे सुख चांगल्या घरात लग्न केल्यावरच प्राप्त होईल आणि त्याबरोबरच सध्यास्थितितील सारी सत्येजशीगरीब परिस्थितीभीक  मागायची लाचारी आणि तोडक्या-मोडक्या घरातही चांगल्या भविष्याची आशा जोपासण्याची हिम्मत सामोरी येतेआशावादी  युवकांना 'पाखरेअसे संबोधून कवी 'घरट्यासाठीया कवितेत नवयुवकांना नवी घरटी मिळाल्यावर झालेला आनंद व्यक्त करतातउमेदीं अजून फुलून येतात  ठाम होतातह्या कवितांनी आपल्यालाही प्रेरणा मिळतेजेव्हा आपण वाचतो:
(6AM Drawing by Tathi Premchand)

'नव्या उमेदीन मारली भरारी
नव्या घरट्याकडे
जेव्हा मिळाले पाचूचे दाणे
रमले सारी आनंदाने नव्या घरट्यात"

किंवा 

जीवनप्रवाहात तुम्ही 
द्या स्वतःला झोकून 
ठेवू नका झाकून आणि 
बघू नका वाकून…. 

सांसारिक सुखप्रेमऋणानुबंध जपताना अनुभवलेले आठवणीतील कित्येक क्षण सुरेख शब्दरूपात मांडून कवी वाचकाला मुग्ध करतातभारावून टाकतातदुखी क्षणांत आनंदाच्या आठवणी करून देतात. 'प्रवाह', 'संसार', 'रुपगर्वितह्या अशाच काही कविता आहेत.

कवीच्या जीवनातील कडू गोड अनुभवव्यक्तिगत सामोरी अनुभवलेले प्रसंग आणि लोकांच्या स्वभावांचे झालेले दर्शन मांडतात.  'मन मनातले', 'अंतरीह्या कविता आत्मबोधक वाटतातकाही कविता सुरेख शब्दरूपात असल्या तरी त्या कुणाला उद्देशून आहेत ते स्पष्ट होत नाही,  तरीही त्या वाचनीय आहेतमला आवडलेली त्यांची 'माताया कवितेचे वाचन करताना कवी सुर्यकांत खांडेकर यांची कविता 'त्या फुलांच्या गंध कोषी सांग तू आहेस का…" आठवतेजी निरंकाराला उद्देशूनत्याच्या सर्वव्यापी असण्याचा पुरावा देतेतसेच या कवितेतून आईच्या विविधी रूपांचे आणि  सहनशीलप्रेमळसामर्थ्यवान स्वभावाचे दर्शन होते.   


कधी कोमल कधी सोज्वळ 
रूप दिसे तुझे मनमोहक 
चाण्डीकाच्या रुपी तुझ्या 
विषारी विकार थरारले… 


एकूणच 'मन पाखरूकवितांचा संग्रह सर्वतोपरीने आसमंतात भरारी घेणाऱ्या पाखरासारखा आहेकधी हे पाखरू एकाग्रतेनेशांतचित्ताने आपले पंख  फडकवीत आसमंतात विहार करते आणि कधी आपली उद्वेगना स्पष्ट करण्यासाठी पंखांचे आवाज करून चित्कारत झेप घेते

कवी विलास कदम यांच्या कविता पहिल्यांदा प्रकाशित झाल्या आहेतही त्यांची पहिली झेप आहे आणि त्यात ते सफल झाले आहेतह्या साहित्यप्रकारात त्यांची वाटचाल अशीच होत राहो आणि त्यांनी स्वतःच्या विचारांना अजून कसून आपले विचार काव्य रुपात प्रस्तुत करावे या साठी माझ्या त्यांना अनेक शुभेच्छा.     


मुंबई 
दिनांक२४ मार्च २०१३ 

"मन पाखरू-विलास गणपत कदम.

     

मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसका स्वरुप निर्मल और स्वच्छ होता

 मेरा मानना है कि हमारे जीव होने को प्रामाणिकता प्रदान करने वाले एहसास आरम्भिक बिंदु से ही अवतरित होते हैं -अर्चना मिश्रा

मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसका स्वरुप  निर्मल और स्वच्छ होता है परन्तु सभ्यता , शिक्षा, संस्कृति  और संस्कार के आवरण से हम उसे  ढकते चले जाते हैं या यूँ कहें कि अपने निर्मल मन का दमन कर बुद्धि का विकास करते  हैं। बुद्धि हमारे शरीर का एक ऐसा यंत्र है जो कि इन्द्रियों  द्वारा दी गई जानकारी से संचालित है।  यह सत्य है कि मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसने अपनी बुद्धि का सर्वाधिक विकास किया तथा प्रकृति में अपनी नयी सत्ता कायम की परन्तु दुर्भाग्यवश अपनी ही वास्तविकता से दूर होता चला गया। 
( Archana Mishra Art Talk series at Art Gate Gallery 2014 )


मेरा मानना है कि  हमारे जीव होने को  प्रामाणिकता प्रदान   करने वाले एहसास आरम्भिक बिंदु से ही अवतरित होते हैं   कहने का तात्पर्य है कि आत्मा के साथ - साथ एहसास भी हमें  अपने शुद्ध रूप में प्राप्त होते हैं। जन्म से पहले और जन्म के बाद बच्चा जैसा महसूस करता है वैसे ही भावों को प्रकट करता है परन्तु जैसे - जैसे उसकी इन्द्रियाँ और बुद्धि परिपक्व होती हैं भावों का स्वाभाविक प्राकट्य नगण्य हो जाता है।  यह विडम्बना है कि अनजाने में ही हम अपने एहसास की तिलांजलि दे भावों का रूपांतरण कर देते हैं। भाव जो हमारे आंतरिक एहसास को प्रकट करते थे वो कब इन्द्रियों के वशीभूत हो गए हमें पता भी नहीं चलता।  अब वो बुद्धि और इन्द्रियों के अनुरूप प्रकट होते हैं। यही कारण है की इनकी स्थिरता स्थाई नहीं होती।  बाहरी आवरण से प्रकट हुए भाव आंतरिक एहसासों से अछूते होते हैं  उनका  अस्तित्व आधारहीन होता है और वो  जल्दी समाप्त हो जाता है। समाज में लिप्त और खुद से दूर जिंदगी आंतरिक और बाह्य जगत से उभरे भावों में अंतर कर पाने में अधिकांशतः असमर्थ और भ्रमित  रही है। यही भ्रम बुद्धि और मन पर आच्छादित हो सत्य को धूमिल कर रचनात्मक भावों की सत्ता को जन्म देता हैं और मनुष्य आजीवन अपनी आंतरिक सृष्टि को भूल बाह्य जगत को तुष्ट करने में सर्वस्व अर्पण करके भी अतृप्त रहता है। 

               
किशोरावस्था  से ही मेरे अंदर ये द्वंद चलता रहा कि भाव इतने आतुर क्यों होते हैं  ? न ही ये तृप्त होते हैं न ही शांत, बस उभरते हैं अपने अस्तित्व का प्रदर्शन कर लुप्त हो जाते हैं। यह पानी में उठने वाले बुलबुले जैसा है जो सतह पर अपने अनिश्चित अस्तित्व के प्रदर्शन से  हमें आकर्षित कर कुछ इस तरह विलीन हो जाते हैं जैसे कभी उभरे ही नहीं। यह आकर्षक है परन्तु सत्य नहीं , सत्य क्षणिक नहीं शाश्वत है। हमारा मन बहुत उपद्रवी  है।  अतृप्त और असंतोष मन में ठहराव नहीं है। ऐसे ही कई प्रश्नों को  खंगालने के बाद मुझे यह ज्ञात  हुआ कि एहसास प्रकृति के कण -कण में यथावत  व्याप्त हैं  परन्तु भावों का रूपांतरण होता चला गया। प्रारम्भ में मैंने अपने प्रश्नों के उत्तर प्रकृति में तलाशे क्योंकि मुझे ज्ञात था कि प्रकृति में निहित एहसासों के प्राकट्य   भाव भी शुद्ध हैं। उन्हें देख कर हम समझ सकते हैं की हमारे भाव कितने स्वाभाविक हैं और कितने अस्वाभाविक।  यही कारण है कि मेरे प्रारंभिक कलाकृतियों में  प्रकृति की भिन्न - भिन्न छटाओं को आसानी से देखा जा सकता है परन्तु समय के साथ प्रश्नों का गूढ़ होना स्वाभाविक है।  यह भी एक अद्भुत बात है कि प्रश्न जितने गूढ़ होते  हैं उनके उत्तर उतने ही सरल। हमारे अंदर से उपजे प्रश्नों के उत्तर भी हमारे अंदर ही है। स्वयं को जानना संसार को जानने से ज्यादा कठिन है।  

सालों पहले उपजे प्रश्नों के उत्तर आज मेरे सामने हैं परन्तु इन्हें यथावत स्वीकार करना संभव नहीं। इन्हें स्वीकारने का अर्थ है अपने अस्तित्व की तिलांजलि दे पुनः जन्म लेना। यही कारण है कि पिछले कुछ  सालों से मैं इन जवाबों के मूल को तलाश रही थी।  एहसासों और भावों के मूल को समझें तो , एहसास आत्मा है और भाव रूप  है अर्थात हम जो अनुभव करते हैं उसका  इन्द्रियों द्वारा प्राकट्य भाव है।मेरा मानना है भाव दो प्रकार के होते हैं बाह्य  भाव और आतंरिक भाव।
( Archana Mishra Art Talk series at Art Gate Gallery 2014 )

 बाह्य भाव जो  सभ्यता , शिक्षा, संस्कृति  और संस्कार की लक्ष्मण रेखा के अंदर बुद्धि और मन के रचे भ्रम का प्राकट्य है, यहाँ एहसास का कोई अस्तित्व नहीं।यह परिस्थितियों के दबाव से प्रकट होते हैं । बाह्य भाव
अशांत , सतही ,उत्तेजित और अल्प अवधि के लिए होते हैं। बाह्य भाव भ्रम है। 
आंतरिक भावों में केवल एहसास और मन ही कार्यरत होते हैं बाकि सब नगण्य है, बुद्धि का यहाँ कोई काम नहीं। यह मन की स्वच्छ्न्दता से प्रकट होते हैं। आंतरिक भाव शाँत, गहरे, हठी और दीर्घकालीन होते हैं। आंतरिक भाव सत्य है।  

हम अधिकतर  बाह्य भाव में  ही जीते हैं और धीरे - धीरे यही सत्य हो जाता है , आंतरिक भावों की गहराई में डूबने से डरते हैं और बाह्य भाव की सतह मजबूत करते चले जाते हैं। मेरी नई कृतियों में इन जवाबों के सार को आप स्पष्ट महसूस कर सकेंगे।  निराकार विषय होने के कारण मेरी कृतियाँ भी अमूर्त हैं, जैसा कि हम जानते हैं दुनिया में सबसे छोटे कणों को क़्वार्क्स कहते हैं और हर कण की अपनी मूल संरचना होती है ऐसे ही अनगिनत कणों के संयोजन से ठोस आकर बनता है। मेरा मानना है कि एहसासों की संरचना भी कुछ इसी तरह की है , हर एक  एहसास भिन्न -भिन्न अदृश्य अनगिनत सूक्ष्म  कणों की संरचना है यही कारण है कि मेरी कलाकृतियों में अलग -अलग रूपाकारों  का संयोजन  दिखता है तथा इसमें प्रदर्शित  रूपाकारों के संयोजन प्राकृतिक और वैज्ञानिक जगत से प्राप्त कणों से पूर्णतः प्रभावित हैं। कलाकृतियों में इस अदृश्य सूक्ष्म जगत की  कोमलता  और सत्यता को प्रदर्शित करना मुझे आनंदित करता है। 

नेहरू सेंटर आर्ट गॅलरीत “लॅण्डस्केप्स ऑफ द सोल” जेसल दलाल आणि हेमाली शाह यांच्या चित्रमय आत्मशोधाचा प्रवास

२२   एप्रिल   ते   २८   एप्रिल दरम्यान   तुम्ही   मुंबईत   असाल ,  तर   आपला   वेळ   नक्की   राखून   ठेवा .  हि    वेळ    तुम्हाला   फक्त   ...